सितारों से पूछा
सितारों से पूछा
~ दीपावाली पर लिखी कविता
दीपावली की रौनक, रोशनी और सभी का उत्साह, बस देखते ही बनता है. पर हर त्यौहार की तरह, धर्म के अतिरिक्त समय के साथ जुड़ती हुई परंपराएं बड़ी विकट परिस्थितियां उत्पन्न कर रही हैं. यह कविता सितारों से हुए काल्पनिक वार्तालाप के माध्यम से ऐसी ही एक समस्या की ओर ध्यान आकर्षित करने का प्रयास है. कुछ छिपे संदेश भी हैं. दंभ से भरा मानस किस तरह कुतर्क करता है, कैसे केवल कभी परंपरा के नाम पर, कभी अनुचित समय की दुहाई देकर अनर्गल कर्म को सही ठहराने की कोशिश करता है... इस वार्तालाप में छिपे व्यंग्य से किंचित् इसकी भी अनुभूति हो सके.
दीपावली पर दीये लगाए,
यहाँ दीया वहाँ दीया
रोशनी से जगमग हर कोना,
फिर सोचा की आज कितनी
सुंदर लग रही होगी
हमारी ये धरती हमारी ये भूमि
ये कुछ दीपक तो बस हमने लगाए हैं,
पूरे देश में रोशनी होगी,
आसमान से क्या नज़ारा दिखता होगा,
ख़ुशी ख़ुशी चहकते हुए,
सितारों से हमने पूछा,
कैसी लग रही है
हमारी ये धरती, हमारी ये भूमि?
सितारों ने कहा, कुछ साल पहले तक
हज़ारों जुगनुओं की सी रोशनी टिमटिमाती दिखती थी,
बेहद ख़ूबसूरत, अद्भुत नज़ारा,
आसमान सितारों के होने के बावजूद
जलता था तुम्हारी भूमि से आज के दिन…
तो शायद आज भी वैसी ही दिखती होगी…
हम उलझ गए,
होगी क्यूँ कहा? नज़र कमज़ोर हो गई है क्या?
नहीं, सितारे बोले, पर क्या है कि,
धुआँ बहुत है.. काला गहरा सा…
काली परत ढके हुए है तुम्हारी भूमि को,
तुम को… तो सब कुछ धुँधला सा है…
हमें बहुत ग़ुस्सा आया,
त्योहार भी कोई समय है इन सब बातों का?
तर्क कुतर्क के लिए सारा साल पड़ा है,
आज का दिन परम्परा का दिन है,
त्योहार ख़ुशी ख़ुशी मनाने का समय है ये…
तो हमने सितारों से कह दिया,
जाओ चश्मा लगा लो,
और उससे भी बात ना बने,
तो फिर हम किसी के बड़े कैमरे के
फ़िल्टर दे जाएँगे तुम्हें,
साफ़ नज़र आने लगेगी फिर
हमारी ये धरती, हमारी ये भूमि
सितारे स्तब्ध हो कर चुप हो गए,
हमें लगा जीत हमारी हुई
फिर एक छोटा सा टिमटिमाता तारा
धीरे से बोला,
परम्परा तो दीपकों की थी,
रोशनी की थी,
किसी के लौट आने की ख़ुशी जो थी,
धुएँ की परम्परा कहाँ से आई?
ये इतना शोर, की आसमान भी सुन सके,
ज़मीन ही नहीं आसमान से भी
रोशनी नहीं आग की चिंगारियां बरसाने की,
ये कैसी परंपरा?
लगा भी लेंगे चश्मा, फ़िल्टर भी पर…
पर क्या?
हमने अधीर होकर पूछा.
उससे दिखावट साफ़ हो जाएगी,
पर धुआँ हटेगा नहीं…
वहीं रहेगा,
काला गहरा, मंडराता हुआ सा,
उसके काले साये से ढकी ही
रहेगी तुम्हारी ये धरती, तुम्हारी ये भूमि





~ लेखनी ~
अनूषा की