कभी कभी लगता है...
कभी कभी लगता है...
एक कविता जो मैंने अपने लिए लिखी है... बस यूं ही मन किया, कि कुछ ऐसा भी हो जो आप मुझी को समर्पित हो. मेरे बारे में कुछ बातें कहती कविता... कुछ अटपटी सी बातें, अटपटी पर असली. असली, मनचली हवा जो कभी मन मोह लेती है, और कभी चुगली बनकर गले में अटक जाती है.
कभी चिड़ियों को आवाज़ बदलकर मैं आवाज़ लगाती हूँ,
कभी बंद कमरे में बिन बादल ही मोरनी-सा नाच रचाती हूँ,
कभी घोड़ी का मानस धरकर यहां-वहां फुदकती फिरती हूँ,
और कभी, हाथ बांधे गांभीर्य ओड़ मैं इधर-उधर विचरती हूँ,
आंकलन करूं तो, दीवानेपन की गुगली तो मैं हूँ,
कभी-कभी लगता है, थोड़ी सी पगली तो मैं हूँ
कभी अनायास ही कोई भूला-बिसरा सा गाना गा पड़ती हूँ,
तो कभी छोटी-सी बात पर बड़ा गुस्सा कर खूब झगड़ती हूँ,
कुछ पंचायती झमेले के झोलों से दूर मैं झट से बह लेती हूँ,
खोटी हो पर बात खरी हो तो अपनों को खट से कह देती हूँ,
इसलिए उनके गले में अटकी हुई चुगली तो मैं हूँ,
कभी-कभी लगता है, थोड़ी सी पगली तो मैं हूँ,
कुछ अनोखे गुण ईश्वर ने मुझे दिए, एक स्नेहिल मन भी,
चेतन में औरों की व्यथा से विचलित होने का संवेदन भी,
तो अपनों का प्रेम भी पाती हूँ, पर बहुत डाँट भी खाती हूँ,
क्योंकि सबकी सुनती तो हूँ, पर मन की करना चाहती हूँ,
परखे पथ छोड़ चाहूं बहना, हवा मनचली तो मैं हूँ,
कभी-कभी लगता है, थोड़ी सी पगली तो मैं हूँ,
झूठ के अभ्यसत कई हो चले, मैं अब भी स्तम्भित होती हूँ,
दिखावा कर सुख चाहने वालों से बहुत अचम्भित होती हूँ,
यूं ये सारे लोग बुरे तो नहीं, पर जीते हैं जाने किस भ्रम में,
थोथे सुख और मिथ्या अभिमान के गजब नकली क्रम में,
अब ऐसे झूठ और दिखावे के परे असली तो मैं हूँ,
कभी-कभी लगता है, थोड़ी सी पगली तो मैं हूँ...
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अनूषा की