मेरे रिंगमास्टर का चिड़ियाघर
मेरे रिंगमास्टर का चिड़ियाघर
मुझे रिंगमास्टर से प्यार हुआ,
मैं चिड़ियाघर पहुंच गई…
क्या कहा? सर्कस क्यों नहीं?
ये कोई सर्कस का रिंगमास्टर थोड़ी था.
ज़िंदगी के चिड़ियाघर में करतब दिखाते प्राणियों को
कभी इस रिंग से बहलाता, कभी उस हंटर से डराकर समझाता…
कभी खींच गिरने से बचाता, कभी धकेल खतरे के रास्ते से सरकाता
कभी मिट्ठू सी मीठी राम राम, और कभी शेर सा गुर्राता,
वो रिंगमास्टर ही है…
पर मुझ को काबू में करने की कोशिश नहीं करता…
मैं आज़ाद हूं… अपने फैसले लेने को…
पर चिड़ियाघर छोड़ती नहीं मैं…
शायद आज़ादी वहम् है मेरा,
आखिर मेरी मर्ज़ी उसका साथ है…
तब तक सुकून जब तक हाथों में उसका हाथ है…
कौन जाने इन बरसों में सम्मोहन भी सीख गया है…
आखिर मुझे रिंगमास्टर से प्यार हुआ,
क्या ताज्जुब है कि मैं चिड़ियाघर की हो गई…
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कविताएं भी कितनी अनोखी होती हैं ना… यूं लोग आपसे कहा करते हैं, कि साफ स्पष्ट बात करो. परंतु कविताएं जितनी घुमा फिरा कर कही जाएं, उतनी ही मनभावन हो सकती हैं… सबके लिए नहीं…
कुछ लोग तो निपट शब्दों के छद्म ताने बाने में उलझ कर रह जाते हैं. पर कुछ लोग होते हैं, जिनको लुका-छुपी खेलता मर्म कहीं झलकता कहीं झपकता पकड़ में आ जाता है.
आनंद की बात है, कि हर एक के लिए ये मर्म कुछ विलग सा हो सकता है. जैसे विलग होता है बखान… अब देखिए ना, कुछ लो-ग तो ससुराल को गेंदे का फूल भी कह देते हैं.
और समझने वाले फूलों का बखान सुन कर ही मोहक महक का आनंद ले लेते हैं.
~ लेखनी ~
अनूषा की