ख़बर के कंधे पर

ख़बर के कंधे पर

आज प्रज्ञा का मन सुबह से ही किसी काम में नहीं लग रहा था। ख़बर ही ऐसी थी अख़बार में। अब यूँ तो कोई फ्रंट पेज न्यूज़ ना थी, तीसरे-चौथे पन्ने पर छपी थी। पर उसका सीधा असर प्रज्ञा के घर के माहौल पर पड़ने वाला था।

“एक आदमी ने अपनी पत्नी से परेशान होकर छत से कूदकर कर ली ख़ुदकुशी”

हेडलाइन देखते ही प्रज्ञा का दिमाग़ सन्न रह गया कुछ पलों के लिए। जानती थी पति अशोक ये ख़बर पढ़ चुके होंगे। सुबह सुबह सबसे पहले वो ही पढ़ते थे अख़बार। प्रज्ञा की बारी तो बड़ी देर से आती थी - सुबह के सारे काम निपटाने के बाद चाय के संग अख़बार - ये सुकून के कुछ पल होते थे।

पर आज उसका ये सुकून छिन्न-भिन्न होकर उलटा चिंता में बदल गया था। थोड़ी देर बाद अशोक बाज़ार से वापस आए, और जैसे कि प्रज्ञा को आशंका थी, आते ही शुरु हो गए। “अरे, अख़बार देखा आज का तुमने?” 

“हाँ देखा तो था, ऐसे ही घूमते फिरते देखा था हालांकि।”

“हुँह, आदत से मजबूर जो हो, ये नहीं की कम से कम अख़बार ठीक तरह से देख लिया करें।”

“समय ही कहाँ मिलता है, जी। किसी-किसी दिन ही होती है इतनी फ़ुरसत तो।”

“तो ये कहना चाहती हो कि रिटायर होकर मैं बिल्कुल फुरसती हो गया हूँ?” प्रज्ञा इसका कुछ जवाब देती, इसके पहले ही अशोक बाबू बोलने लगे, “चलो छोड़ो, मैं बताता हूँ, कौनसी ख़बर है जो ख़ास पढ़नी है तुम्हें। ये देखो, ये आदमी बेचारा, पढ़ो इसे अच्छे से। पूरी पढ़ना! अच्छे से। परेशान कर रखा था पत्नी ने। ऐसे ही किसी दिन मेरी भी ख़बर छपेगी, समझ लेना तुम।”

और अशोक का बड़बड़ाना जारी रहा। बोलते बोलते, कोसते कोसते, उठ कर दूसरे कमरे में चले गए। 

प्रज्ञा सर पर हाथ रख कर वहीं कुर्सी पर धम्म से बैठ गई। आँखों से आँसू बहने लगे। क्या यही सब सुनने के लिए इतने साल से गृहस्थी के प्रति स्वयं को समर्पित कर रखा है उसने? और ख़बर ही बनना है इस घर पर, तो अशोक पर क्यों, फिर तो किसी पर भी बने… उल्टे-सीधे विचारों को झटकते हुए रसोई में पहुँची और चाय चढ़ाने लगी।

तभी उनकी बेटी गरिमा और बड़े  जेठ की बेटी नीलिमा भी आ गई रसोई में। कुछ पलों को तो नीलिमा को भूल ही गई थी प्रज्ञा। रात वाली गाड़ी से देर से आई थी, अशोक को तो पता भी नहीं था। वरना शायद इतनी ज़ोर ज़ोर से अख़बार की ख़बर की मुनादी नहीं करते। पर चलो अच्छा ही हुआ। नीलिमा को भी पता तो चले अशोक काका की असलियत क्या है! 

दोनों लड़कियाँ कॉलेज के फ़ाइनल ईयर में थी, चचेरी बहनें कम मित्र ज़्यादा। नीलिमा की माँ प्रिंसिपल थी एक कॉलेज में। कामकाजी माँओं के बच्चों में अमूमन दिखने वाला आत्मविश्वास और आत्मनिर्भरता - दोनों भरपूर था नीलिमा में। उसे देखकर प्रज्ञा अक्सर सोचा करती, काश उसने भी नौकरी ना छोड़ी होती। अशोक के दबाव में आकर किया वो फ़ैसला आज उनकी आए दिन की जली कटी सुनकर ज़्यादा खलता था।

नीलिमा बोली, “काकी, ये सब क्या बकवास थी?”

“अब क्या बताऊँ बेटा तुझे?” प्रज्ञा दुपट्टे के छोर से आँख पोंछते हुए बोली।

गरिमा का मुँह ग़ुस्से से तमतमा रहा था। “क्या क्या बताएँगी वो तुमको नीलू? ये तो यहाँ रोज़ का तमाशा है। आज ख़बर के कंधे पर रख चली है, कल बस कंधा बदल जाएगा, अपना बेमतलब का फ्रस्टेशन बस ऐसे ही निकालते रहते हैं पापा माँ पर।”

“और तू क्या करती है? देखती रहती है?” नीलिमा ने डपटते हुए पूछा।

“तो करूँ क्या? माँ से कुछ तो सपोर्ट मिलता नहीं, कह देती हैं, अब इनका स्वभाव ही ऐसा है तो क्या करें? बिना इनके साथ के कैसे कुछ करूँ?”

“काकी आप जो टॉर्चर सहन कर रही हो, जानती हो ना, आप अपने बच्चों को भी जाने अनजाने भविष्य में वही करने की प्रेरणा दे रही हो। इस तरह का मानसिक शोषण चुपचाप सहना अपने आप में बहुत बड़ा अपराध है।” नीलिमा हैरत भरी नाराज़गी के साथ बोले जा रही थी।

और प्रज्ञा के मन का बोझ और भारी हो रहा था। इस जगह पर कैसे पहुँच गए थे वो सब? ये ऐसी खींच-तान से भरे बोझिल वातावरण वाली जगह पर… कैसे हो गया ये? 

 

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खाने की मेज़ पर नीलिमा को देखकर थोड़ा अचकचा गए उसके अशोक काका। कब आई होगी ये, और क्या सुना होगा के प्रश्नों के भाव साफ़ दिख रहे थे उनके चेहरे पर। नीलिमा का काका को प्रणाम भी बिल्कुल फीका था। खिन्नता दर्शाता हुआ। शायद इसी से हिम्मत मिली प्रज्ञा को। कुछ तय कर लिया उसने मन में।

जैसे तैसे खाने की मेज़ पर से सब उठे। 

नीलिमा, गरिमा को बुलाया और पूछा, “नीलिमा, कोई तरीक़ा बता सकती है इस परिस्थिति से निकलने का? मैं दूँगी पूरा साथ इस बार। बहुत हो गया वाक़ई अब।” नीलिमा मनोविज्ञान की छात्रा थी। काकी की इस पहल पर बहुत खुश हुई। गरिमा का तो पहले अचरज से कुछ पल मुँह ही ना खुला। उसकी आँखों में उम्मीद की चमक देखकर प्रज्ञा बड़े दिनों बाद मुस्कुरा दी।

फिर क्या था, झटपट एक योजना बनकर तैयार हो गई। अगले दिन जब अशोक काका सुबह की सैर से वापस आए तो उन्हें कटे हुए सेबफल की प्लेट की बजाय नीलिमा के हाथ से प्लेट में पूरे सेब मिले। उन्होंने कहा, “अरे, सेब तो काटे नहीं ये, छुरी तो ले आती साथ में… तुम्हारी काकी कहाँ है?” 

“उनको तो कमरे में बंद रखा है।” नीलिमा ने गंभीरता से कहा। “और गरिमा भी उनके साथ ही है। जैसा डाक्टर ने कहा है। सारे छुरियाँ, माचिस की डिब्बियाँ गरिमा ने छुपा दी हैं, अब जब मैं उसकी जगह काकी के साथ रहूँगी कमरे में, तब ही वो निकालेगी सारा सामान।”

काका का चेहरा फक्क सा रह गया। “नीलू, ये क्या अलबल बोले जा रही हो? क्या हुआ क्या है प्रज्ञा को? कौन से डॉक्टर के पास गई थी?”

“सायकॉलजिस्ट के पास गए थे काका। हायपर टेंशन और एंक्जा़इटी बताई है। ऐसे डिप्रेशन में मरीज़ के मन में आत्महत्या के भी विचार आते हैं।”

“क्या?”

नीलिमा बोली, “इतनी हैरानी क्यों हो रही है आप को? जितने आप ताने मारते हैं, उसके हिसाब से तो ये हालात एकदम अपेक्षित है। कल नमूना मैंने भी देखा, गरिमा से भी सुना, और फ़ोन करके माँ पापा को भी बताया। ये डॉक्टर भी उन्हीं के मित्र हैं, उनकी ही सलाह पर काकी को ले गई थी।”

अब अशोक काका को काटो तो खून नहीं। परिवार में तो कोई इज़्ज़त रही ही नहीं, और तो और बाहर भी नाम निकल गया। जाने कौन से मुहूर्त में वो मनहूस ख़बर पढ़ ली और बिना बात कहीं और का ग़ुस्सा प्रज्ञा पर निकाल दिया। 

“सुन बेटा, मैं तेरी काकी से अभी माफ़ी माँग लूँगा। तू और लोगों से ना कहना ये सब। कान पकड़ता हूँ, ऐसी बेवक़ूफ़ी की बातें दोबारा कभी उससे नहीं कहूँगा।”

नीलिमा ने थोड़ी नरमाई से कहा, “काका, एक दूसरे पर ग़ुस्सा उतारना, झगड़ा होना, ये तो हर घर में आम बातें हैं। पर इस तरह किसी को टॉर्चर करना… ऐसी बुरी ख़बर के कंधे पर रखकर तानों की बंदूक़ दागना, ये तो बहुत ग़लत है ना।”

“तू एकदम सही कह रही है बेटा, ऐसी भूल दोबारा ना होगी। चल मेरे साथ, तेरी काकी के पसंद का नाश्ता ले आते हैं। थोड़ा मेरी माफ़ी की अपील में दम आएगा।”

और दोनों चल पड़े। कमरे की खिड़की से दोनों माँ बेटी उन्हें जाते हुए देख रहे थे। लग रहा था, कि नाश्ते के साथ आज एक नया सा ख़ुशनुमा माहौल भी आएगा, जिसमें थोड़ी परवाह भी होगी, थोड़ा सम्मान भी।   

कहानी - ख़बर के कंधे पर